यह ब्लॉग खोजें

29 सितंबर, 2013

"लड्डू सबके मन को भाते!" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरी बालकृति नन्हें सुमन से
 एक बालकविता

लड्डू हैं ये प्यारे-प्यारे,
नारंगी-से कितने सारे!

बच्चे इनको जमकर खाते,
लड्डू सबके मन को भाते!

pranjal_laddu2

प्रांजल का भी मन ललचाया,
लेकिन उसने एक उठाया!

prachi_laddu

अब प्राची ने मन में ठाना,
उसको हैं दो लड्डू खाना!

तुम भी खाओ, हम भी खाएँ,
लड्डू खाकर मौज़ मनाएँ!

25 सितंबर, 2013

"हमने झूला झूला" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरी बालकृति नन्हें सुमन से
 एक बालकविता
"हमने झूला झूला"
parrot
मानसून का मौसम आया,
तन से बहे पसीना!
भरी हुई है उमस हवा में,
जिसने सुख है छीना!!

कुल्फी बहुत सुहाती हमको,
भाती है ठण्डाई!
दूध गरम ना अच्छा लगता,
शीतल सुखद मलाई!!

पंखा झलकर हाथ थके जब,
हमने झूला झूला!
ठण्डी-ठण्डी हवा लगी तब,
मन खुशियों से फूला!! 

20 सितंबर, 2013

"अब पढ़ना मजबूरी है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरी बालकृति नन्हें सुमन से
 एक बालकविता
"अब पढ़ना मजबूरी है"

खेल-कूद में रहे रात-दिन,
अब पढ़ना मजबूरी है।
सुस्ती - मस्ती छोड़,
परीक्षा देना बड़ा जरूरी है।।

मात-पिता,विज्ञान,गणित है,
ध्यान इन्हीं का करना है।
हिन्दी की बिन्दी को,
माता के माथे पर धरना है।।

देव-तुल्य जो अन्य विषय है,
उनके भी सब काम करेगें।
कर लेंगेंउत्तीर्ण परीक्षा,
अपना ऊँचा नाम करेंगे।।

श्रम से साध्य सभी कुछ होता,
दादी हमें सिखाती है।
रवि की पहली किरण,
हमेशा नया सवेरा लाती है।।

16 सितंबर, 2013

"बालकविता-तरबूज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरी बालकृति नन्हें सुमन से
 एक बालकविता
"तरबूज"
 
जब गरमी की ऋतु आती है!
लू तन-मन को झुलसाती है!!

तब आता तरबूज सुहाना!
ठण्डक देता इसको खाना!!
watermelons-5556 
यह बाजारों में बिकते हैं!
फुटबॉलों जैसे दिखते हैं!!

एक रोज मन में यह ठाना!
देखें इनका ठौर-ठिकाना!!
 
पहुँचे जब हम नदी किनारे!
बेलों पर थे अजब नजारे!!

कुछ छोटे कुछ बहुत बड़े थे!
जहाँ-तहाँ तरबूज पड़े थे!!
 Watermelon field prachi
इनमें से था एक उठाया!
बैठ खेत में इसको खाया!!
 Watermelon
इसका गूदा लाल-लाल था!
ठण्डे रस का भरा माल था!!

11 सितंबर, 2013

"स्कूल बस" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरी बालकृति "नन्हें सुमन" से
एक बालकविता "स्कूल बस"
 
बस में जाने में मुझको,
आनन्द बहुत आता है।
खिड़की के नजदीक बैठना,
मुझको बहुत सुहाता है।।

पहले मैं विद्यालय में,
रिक्शा से आता-जाता था।
रिक्शे-वाले की हालत पर,
तरस मुझे आता था।।

लेकिन अब विद्यालय में,
इक नयी-नवेली बस आयी।

पीले रंग वाली सुन्दर सी,
गाड़ी बच्चों ने पायी।।

आगे हैं दो काले टायर,
पीछे लगे चार चक्के।
बड़े जोर से हार्न बजाती,
हो जाते हम भौंचक्के।।

पढ़-लिख कर मैं खोलूँगा,
छोटे बच्चों का विद्यालय।
अलख जगाऊँगा शिक्षा की,
पाऊँगा जीवन की लय।।

07 सितंबर, 2013

"सब्जी मण्डी" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरी बालकृति "नन्हें सुमन" से
एक बालकविता
"सब्जी मण्डी"
Vegetable_market_in_Heraklion
देखो-देखो सब्जी-मण्डी, 
बिकते आलू,बैंगन,भिण्डी।

कच्चे केले, पक्के केले,
मटर, टमाटर के हैं ठेले।

गोभी,पालक,मिर्च हरी है,
धनिये से टोकरी भरी है।

लौकी, तोरी और परबल हैं,
पीले-पीले सीताफल हैं।

अचरज में है जनता सारी,
सब्जी-मण्डी कितनी प्यारी।

04 सितंबर, 2013

"भँवरा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरी बालकृति "नन्हें सुमन" से
एक बालकविता"भँवरा"

गुन-गुन करता भँवरा आया।
कलियों फूलों पर मंडराया।।

यह गुंजन करता उपवन में।
गीत सुनाता है गुंजन में।।

कितना काला इसका तन है।
किन्तु बड़ा ही उजला मन है।

जामुन जैसी शोभा न्यारी।
खुशबू इसको लगती प्यारी।।

यह फूलों का रस पीता है।
मीठा रस पीकर जीता है।।