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13 जुलाई, 2010

“स्लेट और तख़्ती” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

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सिसक-सिसक कर स्लेट जी रही,
तख्ती ने दम तोड़ दिया है।
सुन्दर लेख-सुलेख नहीं है,
कलम टाट का छोड़ दिया है।।

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दादी कहती एक कहानी,
बीत गई सभ्यता पुरानी,
लकड़ी की पाटी होती थी,
बची न उसकी कोई निशानी।। 

फाउण्टेन-पेन गायब हैं,
जेल पेन फल-फूल रहे हैं।
रीत पुरानी भूल रहे हैं,
नवयुग में सब झूल रहे हैं।। 

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 समीकरण सब बदल गये हैं,
शिक्षा का पिट गया दिवाला।
बिगड़ गये परिवेश ज्ञान के,
बिखर गई है मंजुल माला।।

7 टिप्‍पणियां:

  1. ांपने स्कूल के दिनों की याद आ गयी जब तख्ती बडे डिज़्ज़ीन डाल कर लेपते थे और कल्म को तिर्छी घड कर सुन्दर लिखाई करते। स्लेट तो जैसे वरदान थी। सुन्दर रचना बधाई

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  2. अब तो मेगनेट वाली स्लेट आ गई.. ये स्लेट तो पुरानी बात हो गई..

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  3. बचपन की यादें ताज़ा कर दी …………………आज के युग मे हमारे बच्चे तो जानते भी नही तख्ती क्या होती थी।

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  4. आपकी रचना पढ़ कर सच में तख्ती की लिपाई...और बांस की कलम याद आ गयी...
    स्लेट तो हमेशा गणित के सवाल हल करने के लिए इस्तमाल की ...

    बहुत सुन्दर कविता

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  5. सुन्दर बाल कविता..बधाई.
    _________________________
    अब ''बाल-दुनिया'' पर भी बच्चों की बातें, बच्चों के बनाये चित्र और रचनाएँ, उनके ब्लॉगों की बातें , बाल-मन को सहेजती बड़ों की रचनाएँ और भी बहुत कुछ....आपकी भी रचनाओं का स्वागत है.

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  6. हमने भी स्लेट और तख्ती देख ली...

    _____________________
    'पाखी की दुनिया' के एक साल पूरे

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  7. रचना बहोत पसंद आयि.....

    __________

    My new post: Father day card and cow boy

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